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जातिवाद का नंगा नाच
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जातिवाद का नंगा नाच
अभी तीन दिन पहले महाराष्ट्रा के सतारा जिले में एक बुजुर्ग विधवा दलित (शेड्यूल कास्ट, अनुसूचित जाती की) महिला को नग्न्न करके बुरी तरह पीटा गया और फिर वैसे ही गाँव में उसे घुमाया गया. चोट की मर तो कुछ ऐसे शारीरिक अंगों पर थे जहाँ औरतों की त्वचा अत्यंत की कोमल होती है जैसे कि जाँघें, कमर अदि. चोटों के निशानों को देख कर यही लगता है कि मारने वाले की मंशा दलित महिला के गुप्तांगों पर प्रहार करने की थी. इस प्रकार इस दलित महिला का शारीरिक, मानसिक और सामाजिक शोषण, तिरस्कार और दमन किया गया.
पर बात यहाँ तक ही नहीं रही. महाराष्ट्रा के पुलिस अधिकारी और (कांग्रेसी) नेताओं ने सारेआम देश के सामने इस महिला का जो सामूहिक, मानसिक, सामाजिक और राष्ट्रीय दमन किया उससे देश कि गरीब, बेसहारा और दलित जनता को क्या सन्देश जाता है यह एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह है. दलितों और आदिवासियों पर किये गए अत्याचारों को शेड्यूल कास्ट / शेड्यूल ट्राईब एट्रोसिटी एक्ट १९८७ के अंतर्गत दर्ज किया जाता है. पर पुलिस से ले कर प्रशासन तक इसी बात पर जोर देने में लगे रहे कि यह सिर्फ एक पारिवारिक मामला है जिससे कि प्रशासन को काम न करना पड़े और इस तरह शोषणकर्ता, अत्याचारी और दुराचारी को पुलिस से लेकर नेता तक बचाने में लग गए.
इस अंधेर नगरी चौपट राजा के सन २०१२ के दृश्य में हमें भारत का वह काला इतिहास दिखता है जिसमें मनुष्य पर हुआ मानव-इतिहास का सबसे दुराचारी और घिनौना दानव दिखता है जिसका नाम है 'जातिवाद', अर्थात ब्रहामणों कि बनायीं वह जाती व्यवस्था जिसने इंसान को इतना गिरा दिया कि वह अपने ही पडोसी इंसान का शोषण और अत्याचार करने के लिए इतना मजबूत बन गया कि धर्म और राजनीति, हर प्रकार से इस शोषणकर्ता को बचाया गया.
इस बुजुर्ग दलित महिला का कोई जुर्म न था और अगर कोई होता तो उसे भारतीय संविधान के तहत दर्ज करके उसका फैसला किया जाता. पर भारत में आज २१ वी शताब्दी में भारतीय संविधान नहीं बल्कि २५०० से एक हजार साल पहले लिखी उन स्मृतियों, वेदों और श्रुतियों का राज चल रहा है जिसे भारत के मूलनिवासियों का दमन करने के लिए लिखा गया और जिन पर उस सनातन धर्म कि नींव राखी गई है जिसे कि हिन्दू धर्म कहते हैं. इस नींव कि जड़ में है एक घरपत्वार जिसका कि नाम है जातिवाद जो न सिर्फ कि एक मनुष्य को दुसरे से काटता और कटवाता है बल्कि उसे दुसरे का शोषण और अत्याचार करने का अधिकार भी देता है.
और आज महाराष्ट्र में पुलिस-प्रशासन और राज-प्रशासन अधिकारीयों ने जिस क्रूरता से इस जातिवाद को २१ वीं शताब्दी में ज़िंदा रखा है उससे तो इस देश में किसी गरीब, बेसहारा और दलित को कोई न्याय मिलने की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए भले ही न्याय मिलना हर भारतीय का संविधानसिद्ध अधिकार है.
इन नेताओं ने पचास से पचहतर हजार रूपये से इस शोषित महिला को दबाना चाहा है. पर यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि इस रकम से दोगुनी रकम भी दलित दे सकते हैं अगर ऐसे अधिकारी और नेता अपनी माँ, बहनों, बेटी और बीवियों का भी ऐसा तिरस्कार करवा कर पैसा कमाना चाहते हैं.
निखिल सबलानिया
पर बात यहाँ तक ही नहीं रही. महाराष्ट्रा के पुलिस अधिकारी और (कांग्रेसी) नेताओं ने सारेआम देश के सामने इस महिला का जो सामूहिक, मानसिक, सामाजिक और राष्ट्रीय दमन किया उससे देश कि गरीब, बेसहारा और दलित जनता को क्या सन्देश जाता है यह एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह है. दलितों और आदिवासियों पर किये गए अत्याचारों को शेड्यूल कास्ट / शेड्यूल ट्राईब एट्रोसिटी एक्ट १९८७ के अंतर्गत दर्ज किया जाता है. पर पुलिस से ले कर प्रशासन तक इसी बात पर जोर देने में लगे रहे कि यह सिर्फ एक पारिवारिक मामला है जिससे कि प्रशासन को काम न करना पड़े और इस तरह शोषणकर्ता, अत्याचारी और दुराचारी को पुलिस से लेकर नेता तक बचाने में लग गए.
इस अंधेर नगरी चौपट राजा के सन २०१२ के दृश्य में हमें भारत का वह काला इतिहास दिखता है जिसमें मनुष्य पर हुआ मानव-इतिहास का सबसे दुराचारी और घिनौना दानव दिखता है जिसका नाम है 'जातिवाद', अर्थात ब्रहामणों कि बनायीं वह जाती व्यवस्था जिसने इंसान को इतना गिरा दिया कि वह अपने ही पडोसी इंसान का शोषण और अत्याचार करने के लिए इतना मजबूत बन गया कि धर्म और राजनीति, हर प्रकार से इस शोषणकर्ता को बचाया गया.
इस बुजुर्ग दलित महिला का कोई जुर्म न था और अगर कोई होता तो उसे भारतीय संविधान के तहत दर्ज करके उसका फैसला किया जाता. पर भारत में आज २१ वी शताब्दी में भारतीय संविधान नहीं बल्कि २५०० से एक हजार साल पहले लिखी उन स्मृतियों, वेदों और श्रुतियों का राज चल रहा है जिसे भारत के मूलनिवासियों का दमन करने के लिए लिखा गया और जिन पर उस सनातन धर्म कि नींव राखी गई है जिसे कि हिन्दू धर्म कहते हैं. इस नींव कि जड़ में है एक घरपत्वार जिसका कि नाम है जातिवाद जो न सिर्फ कि एक मनुष्य को दुसरे से काटता और कटवाता है बल्कि उसे दुसरे का शोषण और अत्याचार करने का अधिकार भी देता है.
और आज महाराष्ट्र में पुलिस-प्रशासन और राज-प्रशासन अधिकारीयों ने जिस क्रूरता से इस जातिवाद को २१ वीं शताब्दी में ज़िंदा रखा है उससे तो इस देश में किसी गरीब, बेसहारा और दलित को कोई न्याय मिलने की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए भले ही न्याय मिलना हर भारतीय का संविधानसिद्ध अधिकार है.
इन नेताओं ने पचास से पचहतर हजार रूपये से इस शोषित महिला को दबाना चाहा है. पर यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि इस रकम से दोगुनी रकम भी दलित दे सकते हैं अगर ऐसे अधिकारी और नेता अपनी माँ, बहनों, बेटी और बीवियों का भी ऐसा तिरस्कार करवा कर पैसा कमाना चाहते हैं.
निखिल सबलानिया
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