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भगवान बुद्ध का बताया 'प्रतीत्य समुत्पाद' ('कारण से उत्पन्न' या कहें कि 'अवस्था से उत्पन्न') का सिद्धांत
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भगवान बुद्ध का बताया 'प्रतीत्य समुत्पाद' ('कारण से उत्पन्न' या कहें कि 'अवस्था से उत्पन्न') का सिद्धांत
वेदना (सुख, दुःख, की भावना) के कारण तृष्णा (पाने की तीव्र इच्छा) उत्पन्न होती है , तृष्णा के कारण पर्येषण (=खोजना), पर्येषण के कारण लाभ, लाभ के कारण विनिश्चय (=दृढ़-विचार), विनिश्चय के कारण छंद-राग (=प्रयत्न्न की इच्छा), छंद-राग के कारण अध्यवसान (प्रयत्न्न); अध्यवसान के कारण परिग्रह (=जमा करना), परिग्रह के कारण मात्सर्य (=कंजूसी), मात्सर्य के कारण आरक्षा (=हिफाजत), आरक्षा के कारण ही दंड-ग्रहण, शास्त्र ग्रहण, विग्रह, विवाद, 'तू' 'तू' मैं-मैं (=तुवं, तुवं), चुगली, झूठ बोलना, अनेक पाप=बुराईयाँ (=अ=कुशल-धर्म) (धर्म=मन का विचार) होती हैं।
नाम-रूप (संज्ञा-भौतिक अकार, विचार-अकार, विचार-पदार्थ, विचार-शरीर, विचार-आकृति) के कारण विज्ञान (चित, मन) है. विज्ञान के कारण नाम-रूप है। नाम-रूप के कारण स्पर्श है (आँखों से देखना, जिव्हा से चखना, नाक से सूंघना, कानों से सुनना भी 'स्पर्श' है क्योंकि ऐसे पदार्थ जैसे प्रकाश, ध्वनि तरंगों आदि का स्पर्श इन्द्रियों को होता है)। स्पर्श के कारण वेदना है। वेदना के कारण तृष्णा है। तृष्णा के कारण उपादान (आसक्ति, अनुराग, बंधन, व्यसन, एक तरह से तीव्र तृष्णा से चिपके रहना; उपादान (आसक्ति) चार प्रकार के हैं : 1. कामुपदान = एन्द्रिय, विषय, इन्द्रिय सम्बन्धी उपादान/आसक्ति/बंधन/तीव्र इच्छा/तृष्णा, 2. दित्थुपादान = वैचारिक उपादान, 3. शीलबातुपादान = नियम/विधि और अनुष्ठान/संस्कार में उपादान/आसक्ति, अट्टा-वादुपादान = व्यक्तित्व श्रद्धा / नायक-महिमा) में उपादान/आसक्ति/बंधन) है। उपादान के कारण भव (होना) है। भव के कारण जन्म (=जाति) है। जन्म के कारण जरा-मरण है। जरा-मरण के कारण शोक, परिवेदना (=रोना पीटना), दुःख, दौर्मनस्य (=मनःसंताप) उपायास (=परेशानी) होते हैं। इस प्रकार इस केवल (=सम्पूर्ण) -दुःख-पुंज (रूपी लोक) का समुदाय (= उत्पत्ति) होता है।
नोट : इस लेख को अपने फेसबुक नोट में संभाल कर रखें और प्रिंट निकालें। यह आपको दुनिया की किसी भी पुस्तक में नहीं मिलेगा। भगवान बुद्ध के इस सिद्धांत 'प्रतीत्य समुत्पाद' को इतनी सरलता से समझाया आपको कहीं नहीं मिलेगा। यही समस्त आधुनिक विज्ञान है, यही सृष्टि की उत्पत्ति और जीव विकास के उद्भव का सिद्धांत है जो कि चार्ल्स डार्विन के जीव विकास के सिद्धांत को स्पष्ट करता और समझता है।
लेखक: निखिल सबलानिया। स्रोत: दीघ निकाय (अनुवादक : भिखु/भिक्षु राहुल सांकृत्यायन और भिक्षु जगदीश काश्यप) (दीघ निकाय भगवान बुद्ध के धम्म-उपदेशों के संग्रहों में से एक है जो 2550 वर्ष पुराना है।) और Buddhist Dictionary by Venerable Bhante Nyanatiloka.
बुद्ध धम्म के प्रमुख ग्रन्थ और बौद्ध साहित्य पर पुस्तकें इस लिंक पर क्लिक करके ऑर्डर करें http://www.cfmedia.in/--------buddha-dhamma-ke-pramukh-granth-aur-bauddh-sahitya
Ya Call kare 8527533051. 30 Books. Rs 4600.
नाम-रूप (संज्ञा-भौतिक अकार, विचार-अकार, विचार-पदार्थ, विचार-शरीर, विचार-आकृति) के कारण विज्ञान (चित, मन) है. विज्ञान के कारण नाम-रूप है। नाम-रूप के कारण स्पर्श है (आँखों से देखना, जिव्हा से चखना, नाक से सूंघना, कानों से सुनना भी 'स्पर्श' है क्योंकि ऐसे पदार्थ जैसे प्रकाश, ध्वनि तरंगों आदि का स्पर्श इन्द्रियों को होता है)। स्पर्श के कारण वेदना है। वेदना के कारण तृष्णा है। तृष्णा के कारण उपादान (आसक्ति, अनुराग, बंधन, व्यसन, एक तरह से तीव्र तृष्णा से चिपके रहना; उपादान (आसक्ति) चार प्रकार के हैं : 1. कामुपदान = एन्द्रिय, विषय, इन्द्रिय सम्बन्धी उपादान/आसक्ति/बंधन/तीव्र इच्छा/तृष्णा, 2. दित्थुपादान = वैचारिक उपादान, 3. शीलबातुपादान = नियम/विधि और अनुष्ठान/संस्कार में उपादान/आसक्ति, अट्टा-वादुपादान = व्यक्तित्व श्रद्धा / नायक-महिमा) में उपादान/आसक्ति/बंधन) है। उपादान के कारण भव (होना) है। भव के कारण जन्म (=जाति) है। जन्म के कारण जरा-मरण है। जरा-मरण के कारण शोक, परिवेदना (=रोना पीटना), दुःख, दौर्मनस्य (=मनःसंताप) उपायास (=परेशानी) होते हैं। इस प्रकार इस केवल (=सम्पूर्ण) -दुःख-पुंज (रूपी लोक) का समुदाय (= उत्पत्ति) होता है।
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लेखक: निखिल सबलानिया। स्रोत: दीघ निकाय (अनुवादक : भिखु/भिक्षु राहुल सांकृत्यायन और भिक्षु जगदीश काश्यप) (दीघ निकाय भगवान बुद्ध के धम्म-उपदेशों के संग्रहों में से एक है जो 2550 वर्ष पुराना है।) और Buddhist Dictionary by Venerable Bhante Nyanatiloka.
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