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दो-चार अम्बेडकरवादी बुद्धिजीवी नहीं, बल्कि बुद्धिजीवियों की फ़ौज चाहिए
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दो-चार अम्बेडकरवादी बुद्धिजीवी नहीं, बल्कि बुद्धिजीवियों की फ़ौज चाहिए
यह लेख मैं बहुत दुःख के साथ लिख रहा हूँ। परन्तु इस लेख को लिखने का निश्चय मैंने इसलिए किया चूँकि चार सालों से अधिक समय से मेरे डॉ अम्बेडकर के मिशन से जुड़े होने के कारण मेरी न सिर्फ भावनाएं मिशन से जुडी हैं बल्कि मुझे अपना यह कर्त्तव्य लगता है कि मैं मिशन के लिए सही बात लिखूं।
सबसे पहले मैं पाठकों से कुछ प्रश्न पूछता हूँ और उनका उत्तर ही इस लेख का सार है। क्या लाखों और करोड़ों की फ़ौज में मात्र एक या दो-चार को शस्त्र चलना सीखना पड़ता है? यदि एक शिक्षक ही काफी हो तो पाठशाला और विश्वविद्यालय खोलने की क्या आवश्यकता है?
सेना में शस्त्र चलाना एक को नहीं बल्कि सब ही को सिखाया जाता है। यदि एक शिक्षक से ज्ञान का विकास आगे बढ़ जाता तो पाठशाला और विश्वविद्यालय खोलने की आवश्यकता नहीं थी।
डॉ भीम राव अम्बेडकर का मिशन, हर उस व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को हर दृष्टी से उठाना है जो दबा हुआ और कमजोर है। यह एक वैसा ही बौद्धिक मिशन है जैसे भारत में सर्व शिक्षा अभियान अथवा प्रौढ़ शिक्षा अभियान। इन अभियानों के दौरान शिक्षा के प्रसार में यह जरुरत मालूम हुई कि "एक पढ़ा" हुआ "दूसरे एक" को पढ़ाए। पर इसके लिए दो में से एक को तो पढ़ा होना आवश्यक है। और एक आबादी में काम-से-काम दस प्रतिशत लोग तो पढ़े होने चाहिए जो आगे पढ़ाएं।
सेना जब युद्ध छेड़ती है तो अगली, पिछली, सभी पंक्तियों में लड़ने की कला सब ही को आने चाहिए। बल्कि कई बार अगली पंक्ति से ज्यादा मजबूत पिछली पंक्ति होनी चाहिए।
आज जो डॉ अम्बेडकर के मिशन का हाल है तो उसमें डॉ अम्बेडकर की लेखनी का अध्ययन और उससे प्राप्त ज्ञान केवल अगली पंक्ति में ही है और वहाँ भी बहुत काम ऐसे बुद्धिजीवी हैं जो अध्ययन में अनुशासन से समय देते हैं। बाकी अम्बेडकरवादियों की मध्यम पंक्ति (जैसे कर्मचारी, नौकरी पेशा), पिछली पंक्ति (छात्र) और रिस्राव पंक्ति (प्रौढ़) में डॉ अम्बेडकर के विचारों का अध्ययन न के बराबर और टूटा फूटा है। शेष समाज (घरेलु महिलाएं और मजदूर वर्ग) जो अभी तक मिशन से नहीं जुड़ पाया है और बहुत विशाल है उसके पास डॉ अम्बेडकर के ज्ञान का शिक्षा अभियान चलानेवालों के लिए बुद्धिजीवियों की सेना ही नहीं है। सो मिशन कमजोर पड़ रहा है। जो लोग मिशन के वर्तमान के कार्यों को एक सुनहरे बाग़ जैसा दिखाते हैं वह ऐसे लोग हैं कि मिशन आगे बढ़े अथवा न बढे पर वह खुद तो मिशन के नाम पर आगे बढ़ ही रहे हैं।
अंततः मेरा यह सबसे अनुरोध है कि आपका काम न नेता बनाना है और न नेता बनना, बल्कि आपका काम अम्बेडकरवादी बुद्धिजीवियों की फ़ौज खड़ी करना है, और इसके लिए ज्यादा-से-ज्यादा डॉ अम्बेडकर की पुस्तको और लेखों का अध्यन्न किया जाए, उन पर विचार किया जाए और आज के संदर्भ में उन पर किस प्रकार कार्य किया जाए और कैसे उन्हें लागू किया जाए इसका खाका तैयार किया जाए। - निखिल सबलानिया
डॉ भीमराव अम्बेडकर की लिखी पुस्तकें, भाषण, लेख व उनके जीवन और कार्यों पर 49 पुस्तकें ऑनलाईन आर्डर करें Ya Call Kare: 8527533051. Rs. 7000. पुस्तकें इस लिंक पर क्लिक करके ऑनलाईन आर्डर करें http://www.cfmedia.in/drambedkarki49pustake7000
सबसे पहले मैं पाठकों से कुछ प्रश्न पूछता हूँ और उनका उत्तर ही इस लेख का सार है। क्या लाखों और करोड़ों की फ़ौज में मात्र एक या दो-चार को शस्त्र चलना सीखना पड़ता है? यदि एक शिक्षक ही काफी हो तो पाठशाला और विश्वविद्यालय खोलने की क्या आवश्यकता है?
सेना में शस्त्र चलाना एक को नहीं बल्कि सब ही को सिखाया जाता है। यदि एक शिक्षक से ज्ञान का विकास आगे बढ़ जाता तो पाठशाला और विश्वविद्यालय खोलने की आवश्यकता नहीं थी।
डॉ भीम राव अम्बेडकर का मिशन, हर उस व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को हर दृष्टी से उठाना है जो दबा हुआ और कमजोर है। यह एक वैसा ही बौद्धिक मिशन है जैसे भारत में सर्व शिक्षा अभियान अथवा प्रौढ़ शिक्षा अभियान। इन अभियानों के दौरान शिक्षा के प्रसार में यह जरुरत मालूम हुई कि "एक पढ़ा" हुआ "दूसरे एक" को पढ़ाए। पर इसके लिए दो में से एक को तो पढ़ा होना आवश्यक है। और एक आबादी में काम-से-काम दस प्रतिशत लोग तो पढ़े होने चाहिए जो आगे पढ़ाएं।
सेना जब युद्ध छेड़ती है तो अगली, पिछली, सभी पंक्तियों में लड़ने की कला सब ही को आने चाहिए। बल्कि कई बार अगली पंक्ति से ज्यादा मजबूत पिछली पंक्ति होनी चाहिए।
आज जो डॉ अम्बेडकर के मिशन का हाल है तो उसमें डॉ अम्बेडकर की लेखनी का अध्ययन और उससे प्राप्त ज्ञान केवल अगली पंक्ति में ही है और वहाँ भी बहुत काम ऐसे बुद्धिजीवी हैं जो अध्ययन में अनुशासन से समय देते हैं। बाकी अम्बेडकरवादियों की मध्यम पंक्ति (जैसे कर्मचारी, नौकरी पेशा), पिछली पंक्ति (छात्र) और रिस्राव पंक्ति (प्रौढ़) में डॉ अम्बेडकर के विचारों का अध्ययन न के बराबर और टूटा फूटा है। शेष समाज (घरेलु महिलाएं और मजदूर वर्ग) जो अभी तक मिशन से नहीं जुड़ पाया है और बहुत विशाल है उसके पास डॉ अम्बेडकर के ज्ञान का शिक्षा अभियान चलानेवालों के लिए बुद्धिजीवियों की सेना ही नहीं है। सो मिशन कमजोर पड़ रहा है। जो लोग मिशन के वर्तमान के कार्यों को एक सुनहरे बाग़ जैसा दिखाते हैं वह ऐसे लोग हैं कि मिशन आगे बढ़े अथवा न बढे पर वह खुद तो मिशन के नाम पर आगे बढ़ ही रहे हैं।
अंततः मेरा यह सबसे अनुरोध है कि आपका काम न नेता बनाना है और न नेता बनना, बल्कि आपका काम अम्बेडकरवादी बुद्धिजीवियों की फ़ौज खड़ी करना है, और इसके लिए ज्यादा-से-ज्यादा डॉ अम्बेडकर की पुस्तको और लेखों का अध्यन्न किया जाए, उन पर विचार किया जाए और आज के संदर्भ में उन पर किस प्रकार कार्य किया जाए और कैसे उन्हें लागू किया जाए इसका खाका तैयार किया जाए। - निखिल सबलानिया
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